छोटे छोटे सवाल –१५
लाला हरीचन्दजी की बुजुर्गी की कस्बे में भी इज्जत थी और कमेटी के मेम्बर भी उसकी इज्जत करते थे। इसलिए थोड़ी देर के लिए कमरे का वातावरण शान्त हो गया और लोग धीरे-धीरे बातें करने लगे। मगर जब फिर किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाए तो आवाजें ऊँची उठने लगीं। एक मेम्बर दूसरे से ऊँचा बोलकर अपनी बात मनवाने की कोशिश करने लगा और इस प्रतिस्पर्धा ने फिर लाला हरीचन्द के कोमल हृदय को छू लिया। लालाजी बोले, "भय्यो, बड़े अफसोस का मुकाम है। अब लौ आप लोग किसी फैसले पर नहीं पहुंचे। इत्ती देर में तो सुनते हैं जरमनीवाले ने पूरा जापान जीत लिया था। तो भय्यो, मैं तो चला भट्टे पर। मेरी पचास हजार ईंटों का चक्कर पड़ा है। आप पंचों की जैसे मरजी हो मुझे वहीं खबर कर दीजो। मैं आप लोग्गों से बाहर थोड़े ही हूँ!
लालाजी का इंटों का खासा बड़ा कारोबार था। सारे इलाके के मकान उन्हीं के भट्ठे की ईंटों से बने थे। आजकल उनका बिजनेस शहर में ज़रूर मन्दा था, मगर आसपास के गाँवों में धड़ाधड़ पक्के मकान बनते जा रहे थे। लालाजी अपनी बात खत्म करते हुए उठने को हुए तो उनके साथ ही मास्टर उत्तमचन्द भी खड़े हुए। लालाजी को उनकी छड़ी देते हुए उत्तमचन्द दरवाजे की ओर बढ़ने ही वाले थे कि सेक्रेटरी गनेशीलाल अवसर का लाभ उठाकर बोले, "मामले को बिना चित्त-पट्ट करे हम आपको जाने नहीं देंगे, लालाजी ! हमारा भी बजार का दिन है आज। पचास कलदार का तो सैंधा नमक बिक गया होता अब लों। मगर मास्टरों के सलेक्शन का मामला अटका है तो इसका फैसला भी आप ही करेंगे।"
गनेशीलाल की पसरहट्टे की दुकान थी। लालाजी को उठते देख उन्हें सहसा दुकान का ध्यान आ गया और इस बात का भी कि आज बाजार का दिन है। और हालाँकि वह अपने छोटे भाई सोहन को, जो लेन-देन का काम करता था, दुकान पर छोड़ आए थे, पर उनके मन को तसल्ली नहीं हो रही थी। क्योंकि कागज पर अंगूठा लगवाकर रुपवा देना, और तराजू पर अँगूठा लगाकर सौदा देना, दो अलग चीजें होती हैं। और इस बारे में उन्हें अपने भाई की बुद्धि पर जरा भी भरोसा नहीं था। पर यहाँ भी उसी भाई की इज़्ज़त का सवाल था सो बीच में से कैसे उठते?